आप सभी को यह तो मालूम है की महाभारत का युद्ध कौरवो और पांडवो के बीच में हुआ था , केवल जमीन के लिए।
पांच पांडवो के पांच पुत्र थे। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु बड़े वीर थे। वह अपनी माँ के साथ वन में रहते थे और माँ के साथ ही
उन्होंने शक्तियाँ प्राप्त की। उनकी माँ वासुकी नाथ जी की बेटी थी। वह शिव की बहुत बड़ी भक्तिन थीं। उन्होंने
बरबरीक
को भी अपनी भक्ति की लगन में लगाकर शिव व पार्वती से वरदान दिलाये। और यह वर मांगे कि इन वरदानों का आप हारे के सहारे के लिए प्रयोग करोगे।
एक दिन
बरबरीक यह मालुम हुआ कि महाभारत का युद्ध होने जा रहा है और उस युद्ध में सभी योद्धा युद्ध करेंगे।
वह युद्ध जाना चाहता था तो उसकी माँ ने कहा तुम उसकी तरफ से लड़ना जो हार रहा होगा। वीर
बरबरीक माँ से आज्ञा लेकर अपने घोड़े पर सवार
होकर चल दिए और वरदान में जो तीन तीर मिले थे उन्हें कंधे पर बाँध लिया।
चलते-चलते काफी रात हो गयी। वह पीपल के पेड़ के नीचे सो गए। उस दिन
ग्यारस थी। भगवान
कृष्ण को पता चला कि एक वीर युद्ध देखने की इच्छा लिए महाभारत के मैदान में पहुंच रहा है और वह उधर से लड़ेगा जो हार रहा होगा।
श्री
कृष्ण जी समझ गए की वह युद्ध का निर्णय ही नही होने देगा क्योंकि हार तो कौरवो की है। मुझे कुछ करना चाहिए। श्री
कृष्ण जी पंडित का वेश बनाकर
वहां पहुंच गए जहाँ
बरबरीक रुका हुआ था। उसके पास जाकर श्री
कृष्ण जो बोले ," बालक तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो। "
बरबरीक बोला ," मैं
महाभारत का युद्ध देखने जा रहा हूँ। " श्री
कृष्ण बोले," तुम तो बहुत छोटे हो , क्या करोगे युद्ध में जाकर। वहां तो बडे बड़े योद्धा युद्ध करेंगे।
बरबरीक
बोला ," मैं युद्ध देखूंगा और जो हार रहा होगा, उसकी तरफ से लड़ूंगा। श्री
कृष्ण ने कहा," तूम्हारे पास कोई अस्त्र सस्त्र तो है नही , तुम युद्ध कैसे लड़ोगे ?"
बरबरीक बोले ," मेरे पास ये तीन वाण है जो पूरी सृष्टि के लिए काफी है। " श्री
कृष्ण बोले," तुम्हें इन वाणों पर बड़ा गर्व हैं, कुछ करके तो दिखाओ। "
बरबरीक बोले ,"
पंडित देव जी क्या करना है ?" श्री कृष्ण बोले," यह जो पीपल का पेड़ है इसके सब पत्तो का छेदन कर के दिखाओ " । एक पत्ता श्री
कृष्ण ने अपने पैरो के नीचे दबा दिया।
बरबरीक ने एक तीर निकाल कर तरकस पर कस के जैसे ही छोड़ा , उस तीर ने पेड़ के हर पत्ते में छेद कर दिया और श्री
कृष्ण जी के पैरो की परिक्रमा करने लगा।
श्री
कृष्ण बोले," वीर ये तीर क्या कर रहा है।?"
बरबरीक बोले," आपके पैरो के नीचे जो पत्ता है , उसे ये भेदना चाहता है आप पैर हटाइये। " जैसे ही श्री
कृष्ण
ने पैर उठाया तीर उस पते को भेदकर वापिस तरकस में चला गया।
श्री
कृष्ण समझ गए यह बालक अनहोनी को होनी कर सकता है कुछ करना होगा।
श्री
कृष्ण बोले ," बालक तुम वीर तो हो पर दानी नही हो। "
बरबरीक बोले ," ब्राह्मण देव कुछ मांग कर तो देखो। " श्री
कृष्ण बोले," बालक पहले वचन
दो की तुम मुकरोगे नही। "
बरबरीक ने वचन दिया। श्री
कृष्ण बोले," बालक ये रणभूमि एक बलि मांग रही है और उस बलि के लिए केवल तीन ही व्यक्ति
योग्य है। एक अर्जुन दूसरा मैं और तीसरे तुम। अर्जुन बलि देगा तो
युद्ध कौन करेगा , मैं ब्राह्मण , अब केवल तुम ही बलि के योग्य हो। "
इतना सुनकर
बरबरीक बोला ," ब्राह्मण आप है कौन मुझे अपना सही परिचय दीजिये। " इतना
सुनते ही श्री
कृष्ण ने
बरबरीक को अपने दर्शन करा दिए।
बरबरीक बोले," प्रभु बोलो क्या करना है ?" श्री
कृष्ण ने कहा," तुम अपना शीश मुझे दान में दे दो। "श्री
कृष्ण
के कहते ही
बरबरीक ने अपनी तलवार निकाली और अपनी माँ का ध्यान लगाया और एक ही वार में अपना शीश धड़ से अलग कर दिया और श्री
कृष्ण के हाथो में रख दिया।
श्री
कृष्ण बोले,"
बरबरीक तुम्हरी कोई इच्छा तो नही है ?"
बरबरीक का शीश बोला ," प्रभु मैं युद्ध देखने की एवं करने की इच्छा से आया था। प्रभु अब तो मैं युद्ध
कर नही सकता बस अब मेरी ये युद्ध देखने की इच्छा पूरी कर दे। " श्री
कृष्ण ने शीश को अमृत से सींचकर एक पर्वत पर रख दिया और अपने नेत्रो की ज्योति देकर
उस शीश को कहा ," अब तुम महाभारत का युद्ध देखो और निर्णय करना।
भक्तो जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया और सभी कौरव मारे गए तो पांडवो को घमण्ड होने लगा , तब कृष्ण बोले ," आप लड़ो मत एक शीश है जिसने सारा युद्ध देखा है। हम सब उसके पास चलते है , जो वह शीश कहेगा तुम सबको मानना होगा।
"सभी पांडव इस बात के लिए तैयार हो गए। तब श्री कृष्ण उस शीश के पास जाकर बोले," हे वीर बताओ तुमने युद्ध में क्या देखा?" श्री कृष्ण के कहते ही शीश बोल उठा ," हे प्रभु मैंने जो देखा वो बता रहा हूँ।
मैंने युद्ध में केवल आपका चक्र चलता देखा , जो योद्धाओ के सर काट रहा था और जो द्रोपदी है वह उनके रुधिरो को नीचे गिरने नही दे रही थी,
सीधा उनके रुधिरो को पी रही थी। इस से ज्यादा मैंने कुछ नही देखा। " सारे पांडव शर्म से सर नीचे करके खडे हो गए। तब श्री कृष्ण ने कहा," हे वीर मैं
तुम्हें वरदान देता हूँ की कलियुग में मेरे नाम से तेरे इस शीश की पूजा होगी और तुम "हारे के सहारे" के नाम से जाने जाओगे " और ये ही शीश नदी के रास्ते खाटू में निकला।
फिर राजा ने इसका मंदिर बनवाकर भक्तो के लिए इस शीश की स्थापना की। आज ये शीश श्री कृष्ण का नाम लेकर लाखों भक्तो की नैयाँ पर करवा रहा है।
उनके जीवन से अनेक कष्टों को हर रहा है। उन्हें अनेक वर देकर जीने के सन्देश दे रहा है। फाल्गुन में मेला इसीलिए मनाया जाता है कि जिस दिन बरबरीक ने
शीश दान किया उस दिन फाल्गुन की बारस थी और ग्यारस को ये उस पीपल के नीचे आराम कर रहे थे। इसीलिए ग्यारस और बारस फाल्गुन शुक्ल पक्ष को खाटू शीश दानी का मेला लगता है।
इन्ही खाटू वाले श्याम बाबा की घी और बूटी आज हर हारे का सहारा बन रही है। श्याम बाबा ने जो वचन अपनी माँ और श्री कृष्ण को दिया था ,
हारे का सहारा बनने का और दुखियो के दुःख दूर करने का , वो वचन घी- बूटी दे कर आज भी निभा रहे है। श्याम बाबा के शृंगार ( गुलाब के फूलों ) से
बनी बूटी और उनकी जोत का घी अपना कर दीन दुखी अपने कष्टों से मुक्ति पा रहे हैं।